बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- बाँधनी (टाई एण्ड डाई) का इतिहास, महत्व बताइए।
अथवा
टाई एण्ड डाई का महत्व तथा इसके मुख्य केन्द्र बताइए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
बाँधनी के मुख्य केन्द्र
उत्तर -
वस्त्रों को रंगकर उन्हें चित्रित कर सुन्दर बनाने की परम्परा सभ्यता के आरम्भिक काल से ही चली आ रही है। बाँधनी शब्द संस्कृत शब्द बंध से बना है जिसका अर्थ है- बाँधना। टाई एवं डाई से तात्पर्य गाँठें बाँधने से है अर्थात् ठप्पा या किसी अन्य सामान के बिना ही कपड़े में गाँठें बाँधकर आकर्षक डिजाइन तैयार कर सकते हैं। इसके लिए किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती। इसमें कपड़े पर डिजाइन की बुँदकियों को धागे. से कसकर बाँधकर उसे रंगा जाता है जिससे धागे बंधे पान पर नहीं चढ़ता तथा पूरा वस्त्र रंग जाता है। इस प्रकार यह अवरोधक छपाई का एक प्रकार है।
बाँधनी का इतिहास (History of Bandhani) – बाँधनी भारतीय रँगाई की सर्वोत्तम कृति है जिसकी शुरुआत भारत में ही हुई। भारत में राजस्थान व गुजरात में इस कला का जन्म स्थान माना जाता है। राजस्थान में टाइ एण्ड डाई को बाँधनी कहा जाता है। रामायण, महाभारत व हर्षचरित में भी बाँधनी का उल्लेख है। 1373 ई० के कालीन साहित्य में भी सतरंगी चुनरी का उल्लेख मिलता है। 16वीं शताब्दी के आसपास लिखी "वर्णका" नामक पुस्तक में भी, गुजरात की बाँधनी के प्रचलन के प्रमाण मिलते हैं। इस समय इसे बंधालय कहा जाता था।
यह माना जाता है कि राजस्थान बाँधनी का घर है, यहीं पर यह कला फली फूली एवं विकसित हुई। कहा जाता है कि बाँधनी, प्रेम, खुशी व लोकगीतों का चिह्न है। यह दुल्हन कें परिधान का मुख्य अंग है। बाँधनी की कला गुजरात, काठियावाड़, राजस्थान और सिन्ध में काफी प्रचलित है। बाँधनी में घट चोला व चुनरी, यह दो पारम्परिक प्रकार हैं। 15वीं शताब्दी में जोधाबाई जी के शासन में मुलतान नगर का एक कारीगर मोहम्मद बिन आसिम अपने रंगाई के नमूने लेकर जोधा जी के पास पहुँचा तब जोधा जी को यह कला इतेनी मनमोहक लगी कि उन्होंने कारीगर का खास सामान खरीद लिया तथा उन्हें सम्मानित भी किया। तभी से यह कला विकसित हुई।
बंधेज की ओढ़नियों की अपने आप में एक अलग ही विशेषता है। इनके डिजाइनों में भी पक्षी, जानवर, फूल, पत्तियों का सुन्दर संयोजन होता है। जयपुर का पँचरंगी साफा, मोण्डा और जो जोधपुर का कगणियाँ विशेष ख्याति प्राप्त है। शेखावटी की बंधेज चिनोन पर होती है जबकि जयपुर में शिफोन मलमल आदि पर। दक्षिण एवं पश्चिम राजस्थान में बंधेज का काम लट्ठे पर होता है। भारत की रंगाई पुराने रोम में भी काफी प्रसिद्ध है। राजस्थान और गुजरात की स्त्रियाँ बाँधनी की चुनरी कसीदा किए हुए घाघरे के ऊपर ओढ़ती हैं।
बाँधनी का महत्व - बाँधनी प्रेम विवाह, वैवाहिक सुख व सुहाग का प्रतीक माना गया है। यह खुशियों के प्रतीक का वस्त्र है। हिन्दू संस्कारों में विवाह के समय दुल्हन के वस्त्रों में चुनरी को शुभ माना जाता है। लाल चुनरी सौभाग्य का प्रतीक होती है। हर राजस्थानी स्त्री यह मनोकामना करती है कि वह सावन में सहरिया या मोण्डा पहने। राजस्थान में यह दुल्हन के परिधान का प्रमुख अंग है। गुजरात में इसी तरह घरचोला एक परम्परागत वस्त्र है। यह घरचोला दुल्हन को विवाह के समय पहनाया जाता है। इसका उपयोग दुल्हन की ओढ़नी के रूप में करते हैं। आजकल घरचोला का उपयोग अधिकांश स्त्रियाँ उत्सवों व शादियों में करती हैं। इस प्रकार बाँधनी के वस्त्र उल्लास व खुशी के प्रतीक हैं। राजस्थानी पुरुषों की पगड़ी भी बाँधनी से बनाई जाती है। इस प्रकार बाँधनी का अलग-अलग जगह अलग-अलग महत्व होता है।
बाँधनी के मुख्य केन्द्र
गुजरात-— गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और बड़े कार्यक्षेत्र हैं। जहाँ पर बाँधनी का कार्य किया जाता है। इनमें मुख्य जामनगर है। ऐसा माना जाता है कि जामनगर का पानी सबसे चमकीला लाल रंग लाता है। इसलिए रंगाई वहाँ की जाती है। जबकि गणने बाँधने का कार्य अन्य स्थानों पर किया जाता है। बाँधनी के पारम्परिक केन्द्र कच्छ में भी है। विशेषकर भुज अंजार, नांडवी में प्रमुख रूप से यह कार्य होता है।
राजस्थान - राजस्थान के बीकानेर व सिकर में बाँधनी का बारीक कार्य किया जाता है। जयपुर, जोधपुर, बारमर, पाली, उदयपुर, नायड़वारा बाँधनी के केन्द्र हैं। रंगों की दृष्टि से राजस्थान के रेगिस्तान के शहरों में अच्छे परिणाम मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर का खाँडा फतसा मोहल्ला बाँधनी का प्रमुख केन्द्र है।
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